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Showing posts from 2012

HOPE RISES!!

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HOPE RISES!! When the birds don’t sing the morning song When the colour of sunrise is not vermilion When the green of the grass loses its tinge When the evil indulge in their own morbid binge Hope rises!! When the rain doesn’t drench you anymore When the sunshine is bereaved of its radiance galore When the blue of the sky appears a shade impure When the intrigue of a ravine ceases to lure Hope rises!! When mornings to evenings is a lifeless tourney When life becomes a stale, repetitive journey When the circle of life becomes an oblong When the desire to persist is not so strong Hope rises!! When you can only laugh but can never smile When you have only slept and not relaxed for a while When you have not danced blithely in the rain When you have not fallen in love again Hope rises!!

सर्वस्व मेरा हुआ

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सर्वस्व मेरा हुआ     आँखें, वो हल्की भूरी, हल्की काली, हल्की खुली, हल्की बंद, खोलती हैं रहस्य सारे, तुम चाहो जितना छिपाना, फिर भी बोलती हैं, बेझिझक, अनवरत. होंठ, जैसे गुलाबी कमल की, दो उन्मुक्त कोपलें, मिलते हैं,अलग होते हैं, बुलाते हैं,दूर भगाते हैं, तुम कुछ और कहती हो, वो कुछ और बताते हैं. ह्रदय के भेद, परत दर परत खोलते हैं. मुस्कान, वो अर्ध-चंद्रकार, दोनों तरफ सीधी सिलवटें, उनको स्पर्श करते, गाल के दो 'डिम्पल'. संसार की सारी हंसी, समेटे हुए अपने अन्दर, मेरी सारी ख़ुशी, बटोरे हुए अपने अन्दर.     तुम, जिसका सब कुछ, सारा कुछ, अद्वितीय, अद्भुत, स्वार्गिक. तुमको छोड़ते हुए लगता है, भरे दिन में ही अँधेरा हुआ, संतोष है लेकिन, कि आज तक जो था तुम्हारा, आज के बाद सर्वस्व मेरा हुआ.

आओ लिखें कुछ नया

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आओ लिखें कुछ नया आओ लिखें कुछ नया, आकांक्षा की स्याही से, नवचेतना के पन्नो पर, कुछ कुरेंदे, कुछ उकेरें, आओ लिखें कुछ नया.     आओ लिखें कुछ नया, ऐसा जो बस ऐसा हो, बिलकुल जीवन के जैसा हो, कुछ सुबह, कुछ शाम, आओ लिखें कुछ नया.     आओ लिखें कुछ नया, लेखनी स्वतः अपनी राह पकड़ ले, विचार उन्मुक्त हो बह निकलें, कुछ ज़ाहिर, कुछ छिपे, आओ लिखें कुछ नया.       आओ लिखें कुछ नया, कि पढ़े तो रस घुल जाए, मानस पटल पर छाप छूट जाए, कुछ धुंधली, कुछ शाश्वत, आओ लिखें कुछ नया.     नवीनता तो नियम है, परिवर्तन प्रकृति का सत्य है, लिखेंगे तो लिख ही लेंगे, कुछ नूतन, कुछ चिरन्तन, आओ लिखें कुछ नया.          

मेरा वो छोटा सा घर

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मेरा वो छोटा सा घर  मेरा वो छोटा सा घर, दो कमरों का नन्हा सा घर, कहने को तो छोटा था मेरा घर, लेकिन हम सब और बहुतेरे सारे, हँसते, गाते; समा जाते थे उसकी आगोश में. आज जब मेरे बंगले में एक मेरी अभिलाषा, समाविष्ट नहीं हो पाती है, तब याद आता है मुझे मेरा वो छोटा सा घर . मेरा वो छोटा सा घर, जब पंखे की हवा मन को शांत कर देती थी, सुराही का सौंधा पानी शीतलता का उदहारण हुआ करता था. आज जब मेरे बंगले में फ्रिज और ए . सी ., गर्मी को काटने का नाटक करते दिखते हैं, तब याद आता है मुझे मेरा वो छोटा सा घर .         मेरा वो छोटा सा घर, रंसोई में पकते माँ के हाँथ के खाने की खुशबू, सुगन्धित करती पूरे घर को , पड़ोस को. आज जब मेरे बंगले में इत्र की बहुतायत है, ह्रदय को स्पर्श कर जाए, ऐसी क्षमता किसी एक खुशबू में भी नहीं है, तब याद आता है मुझे मेरा वो छोटा सा घर .

ख़ुद की खोज

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ख़ुद की खोज     ऑफिस की फाइलों के पीले पन्नों में मैं खुद को खोजता हूँ. क्या पता खुश्क कागज़ पर काली-नीली स्याही मेरे अस्तित्व का खाका खीच दे.             सड़कों के असंख्य गड्डों, छितराए पत्थरों में मैं खुद को खोजता हूँ. क्या पता किसी ठोकर, कोई झटका मुझे मेरे निज से साक्षात्कार करा दे.                 शहर के इमारतों के जंगल में मैं खुद को खोजता हूँ. क्या पता चटख शीशे, चमकती कांक्रीट से प्रतिवर्तित कोई रौशनी मेरी आकृति का प्रतिबिम्ब दिखा दे.             रेल की निष्प्रभ, भावहीन पटरियों में मैं खुद को खोजता हूँ. क्या पता नदी, पर्वत, रेगिस्तान, बियावान, में मीलों दौड़ती हुई, कहीं किसी ठौर पर मुझे स्वयं से मिला दे.               खुद को खोजने की यात्रा नदी से समुद्र में जाते नाविक की तरह जिसे क्षितिज दीखता तो है लेकिन क्षितिज के आगे की दुनिया अबूझ है.               खुद को खोजने की यात्रा चौराहे पर खड़े उस पथिक की तरह जिसे पगडण्डी का मोड़ दीखता तो है लेक

वो दिन, क्या दिन!!

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वो दिन, क्या दिन!!     बचपन के वो निश्चिन्त दिन, संसार सिमटा हुआ एक टॉफी में, समय उलझा हुआ खेलने में, खाने में, खिलौनों की दुनिया ख़त्म होती नहीं थी, दिन शुरू, दिन ख़त्म, माँ के आँचल में. वो दिन, क्या दिन!!           स्कूल के वो लौलीन दिन, बस्ते के अन्दर किताब, कलम और आशा, शरारत के दौर, टीचर ने चाहे जितना तराशा, दोस्ती बनने-टूटने के बीच एक अपना बेस्ट फ्रेंड, माँ ने बोलना सिखाया, लेकिन मातृ भाषा अब थी मित्रभाषा. वो दिन, क्या दिन!!         कॉलेज के वो चमकीले दिन, हर दिन एक नया सपना देखती आँखें, आँखों के रस्ते दिल में उतरती उसकी आँखें, आशाओं की सिलेट पर लिखीं सफलता की कहानी, उन्मुक्त मन को कभी क़ैद ना कर पायीं नियमों की सलाखें. वो दिन, क्या दिन!!           गृहस्थी के वो जवाबदेह दिन, जिम्मेदारी के बोझ से कंधे झुकते गए, क़र्ज़ के भार से निरंतर दबते चले गए, समरूपता बिठाते, स्वच्छंदता छिनी, बेड़ियाँ कसीं, गृह-बाह्य के कर्तव्यों में उलझते चले गए.   वो दिन, क्या दिन!!            

एक बार फ़िर

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एक बार फ़िर एक बार फ़िर, धूल पोछ कर, बाहें चढ़ा कर, लम्बी सांस लेकर, मन चित्त हो कर, एक बार फ़िर. आशाएं पड़ चुकी थीं धूमिल, उम्मीदें गयीं थीं सहम. जोश उड़न-छू हो गया था, जीवट रह गया था मद्धम. जीवन के बहाव में, निढाल उतरा रहे थे. जीवित थे पर मृत्यु सदृश, अनमने ही इतरा रहे थे. राह दिखती तो थी, लेकिन चलने की शक्ति क्षीण थी. सपने पटल पर बनते तो थे, लेकिन बुनने की चाह गौड़ थी. सफलता के वो बीते दिन, ह्रदय को अब झंकृत नहीं करते थे. कामयाबी की खुशबू, मन को अब स्फूर्त नहीं करती थी. लेकिन हाथ कब तक जड़ रहेंगे, निष्काम यूँ ही धरे पड़े रहेंगे. नए दिन, नए सूर्य से आवरण, भला कब तक करते रहेंगे. आकांक्षा के पृष्ठ पर, प्रत्याशा की कूँची से, चलो सपने बुनें, एक बार फिर. एक बार फ़िर, धूल पोछ कर, बाहें चढ़ा कर, लम्बी सांस लेकर, मन चित्त हो कर, एक बार फ़िर.