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Showing posts from June, 2012

आओ लिखें कुछ नया

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आओ लिखें कुछ नया आओ लिखें कुछ नया, आकांक्षा की स्याही से, नवचेतना के पन्नो पर, कुछ कुरेंदे, कुछ उकेरें, आओ लिखें कुछ नया.     आओ लिखें कुछ नया, ऐसा जो बस ऐसा हो, बिलकुल जीवन के जैसा हो, कुछ सुबह, कुछ शाम, आओ लिखें कुछ नया.     आओ लिखें कुछ नया, लेखनी स्वतः अपनी राह पकड़ ले, विचार उन्मुक्त हो बह निकलें, कुछ ज़ाहिर, कुछ छिपे, आओ लिखें कुछ नया.       आओ लिखें कुछ नया, कि पढ़े तो रस घुल जाए, मानस पटल पर छाप छूट जाए, कुछ धुंधली, कुछ शाश्वत, आओ लिखें कुछ नया.     नवीनता तो नियम है, परिवर्तन प्रकृति का सत्य है, लिखेंगे तो लिख ही लेंगे, कुछ नूतन, कुछ चिरन्तन, आओ लिखें कुछ नया.          

मेरा वो छोटा सा घर

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मेरा वो छोटा सा घर  मेरा वो छोटा सा घर, दो कमरों का नन्हा सा घर, कहने को तो छोटा था मेरा घर, लेकिन हम सब और बहुतेरे सारे, हँसते, गाते; समा जाते थे उसकी आगोश में. आज जब मेरे बंगले में एक मेरी अभिलाषा, समाविष्ट नहीं हो पाती है, तब याद आता है मुझे मेरा वो छोटा सा घर . मेरा वो छोटा सा घर, जब पंखे की हवा मन को शांत कर देती थी, सुराही का सौंधा पानी शीतलता का उदहारण हुआ करता था. आज जब मेरे बंगले में फ्रिज और ए . सी ., गर्मी को काटने का नाटक करते दिखते हैं, तब याद आता है मुझे मेरा वो छोटा सा घर .         मेरा वो छोटा सा घर, रंसोई में पकते माँ के हाँथ के खाने की खुशबू, सुगन्धित करती पूरे घर को , पड़ोस को. आज जब मेरे बंगले में इत्र की बहुतायत है, ह्रदय को स्पर्श कर जाए, ऐसी क्षमता किसी एक खुशबू में भी नहीं है, तब याद आता है मुझे मेरा वो छोटा सा घर .

ख़ुद की खोज

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ख़ुद की खोज     ऑफिस की फाइलों के पीले पन्नों में मैं खुद को खोजता हूँ. क्या पता खुश्क कागज़ पर काली-नीली स्याही मेरे अस्तित्व का खाका खीच दे.             सड़कों के असंख्य गड्डों, छितराए पत्थरों में मैं खुद को खोजता हूँ. क्या पता किसी ठोकर, कोई झटका मुझे मेरे निज से साक्षात्कार करा दे.                 शहर के इमारतों के जंगल में मैं खुद को खोजता हूँ. क्या पता चटख शीशे, चमकती कांक्रीट से प्रतिवर्तित कोई रौशनी मेरी आकृति का प्रतिबिम्ब दिखा दे.             रेल की निष्प्रभ, भावहीन पटरियों में मैं खुद को खोजता हूँ. क्या पता नदी, पर्वत, रेगिस्तान, बियावान, में मीलों दौड़ती हुई, कहीं किसी ठौर पर मुझे स्वयं से मिला दे.               खुद को खोजने की यात्रा नदी से समुद्र में जाते नाविक की तरह जिसे क्षितिज दीखता तो है लेकिन क्षितिज के आगे की दुनिया अबूझ है.               खुद को खोजने की यात्रा चौराहे पर खड़े उस पथिक की तरह जिसे पगडण्डी का मोड़ दीखता तो है लेक