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Showing posts from May, 2012

वो दिन, क्या दिन!!

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वो दिन, क्या दिन!!     बचपन के वो निश्चिन्त दिन, संसार सिमटा हुआ एक टॉफी में, समय उलझा हुआ खेलने में, खाने में, खिलौनों की दुनिया ख़त्म होती नहीं थी, दिन शुरू, दिन ख़त्म, माँ के आँचल में. वो दिन, क्या दिन!!           स्कूल के वो लौलीन दिन, बस्ते के अन्दर किताब, कलम और आशा, शरारत के दौर, टीचर ने चाहे जितना तराशा, दोस्ती बनने-टूटने के बीच एक अपना बेस्ट फ्रेंड, माँ ने बोलना सिखाया, लेकिन मातृ भाषा अब थी मित्रभाषा. वो दिन, क्या दिन!!         कॉलेज के वो चमकीले दिन, हर दिन एक नया सपना देखती आँखें, आँखों के रस्ते दिल में उतरती उसकी आँखें, आशाओं की सिलेट पर लिखीं सफलता की कहानी, उन्मुक्त मन को कभी क़ैद ना कर पायीं नियमों की सलाखें. वो दिन, क्या दिन!!           गृहस्थी के वो जवाबदेह दिन, जिम्मेदारी के बोझ से कंधे झुकते गए, क़र्ज़ के भार से निरंतर दबते चले गए, समरूपता बिठाते, स्वच्छंदता छिनी, बेड़ियाँ कसीं, गृह-बाह्य के ...

एक बार फ़िर

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एक बार फ़िर एक बार फ़िर, धूल पोछ कर, बाहें चढ़ा कर, लम्बी सांस लेकर, मन चित्त हो कर, एक बार फ़िर. आशाएं पड़ चुकी थीं धूमिल, उम्मीदें गयीं थीं सहम. जोश उड़न-छू हो गया था, जीवट रह गया था मद्धम. जीवन के बहाव में, निढाल उतरा रहे थे. जीवित थे पर मृत्यु सदृश, अनमने ही इतरा रहे थे. राह दिखती तो थी, लेकिन चलने की शक्ति क्षीण थी. सपने पटल पर बनते तो थे, लेकिन बुनने की चाह गौड़ थी. सफलता के वो बीते दिन, ह्रदय को अब झंकृत नहीं करते थे. कामयाबी की खुशबू, मन को अब स्फूर्त नहीं करती थी. लेकिन हाथ कब तक जड़ रहेंगे, निष्काम यूँ ही धरे पड़े रहेंगे. नए दिन, नए सूर्य से आवरण, भला कब तक करते रहेंगे. आकांक्षा के पृष्ठ पर, प्रत्याशा की कूँची से, चलो सपने बुनें, एक बार फिर. एक बार फ़िर, धूल पोछ कर, बाहें चढ़ा कर, लम्बी सांस लेकर, मन चित्त हो कर, एक बार फ़िर.