एक बार फ़िर
एक बार फ़िर
एक बार फ़िर,
धूल पोछ कर,
बाहें चढ़ा कर,
लम्बी सांस लेकर,
मन चित्त हो कर,
एक बार फ़िर.
आशाएं पड़ चुकी थीं धूमिल,
उम्मीदें गयीं थीं सहम.
जोश उड़न-छू हो गया था,
जीवट रह गया था मद्धम.
जीवन के बहाव में,
निढाल उतरा रहे थे.
जीवित थे पर मृत्यु सदृश,
अनमने ही इतरा रहे थे.
राह दिखती तो थी,
लेकिन चलने की शक्ति क्षीण थी.
सपने पटल पर बनते तो थे,
लेकिन बुनने की चाह गौड़ थी.
सफलता के वो बीते दिन,
ह्रदय को अब झंकृत नहीं करते थे.
कामयाबी की खुशबू,
मन को अब स्फूर्त नहीं करती थी.
लेकिन हाथ कब तक जड़ रहेंगे,
निष्काम यूँ ही धरे पड़े रहेंगे.
नए दिन, नए सूर्य से आवरण,
भला कब तक करते रहेंगे.
आकांक्षा के पृष्ठ पर,
प्रत्याशा की कूँची से,
चलो सपने बुनें,
एक बार फिर.
एक बार फ़िर,
धूल पोछ कर,
बाहें चढ़ा कर,
लम्बी सांस लेकर,
मन चित्त हो कर,
एक बार फ़िर.
दिन बहुरेंगे,
ReplyDeleteफिर दौड़ेगा,
जोश हमारी ,सासों में।
प्रिय प्रवीण सर,
ReplyDeleteटिप्पणी के लिए आभार. कभी कभी लगता है कि केवल दिन बिता रहे हैं, कुछ कर नहीं पा रहे. फिर लगता है कुछ किया जाए.
beautiful poetry...apna mulya khojta manushya....anpna astitva dhoondta manushya...dhool ka kan hai...dhool mein mil jaan hai
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