सर्वस्व मेरा हुआ
सर्वस्व मेरा हुआ
आँखें,
वो हल्की भूरी, हल्की काली,
हल्की खुली, हल्की बंद,
खोलती हैं रहस्य सारे,
तुम चाहो जितना छिपाना,
फिर भी बोलती हैं,
बेझिझक, अनवरत.
होंठ,
जैसे गुलाबी कमल की,
दो उन्मुक्त कोपलें,
मिलते हैं,अलग होते हैं,
बुलाते हैं,दूर भगाते हैं,
तुम कुछ और कहती हो,
वो कुछ और बताते हैं.
ह्रदय के भेद,
परत दर परत खोलते हैं.
मुस्कान,
वो अर्ध-चंद्रकार,
दोनों तरफ सीधी सिलवटें,
उनको स्पर्श करते,
गाल के दो 'डिम्पल'.
संसार की सारी हंसी,
समेटे हुए अपने अन्दर,
मेरी सारी ख़ुशी,
बटोरे हुए अपने अन्दर.
तुम,
जिसका सब कुछ, सारा कुछ,
अद्वितीय, अद्भुत, स्वार्गिक.
तुमको छोड़ते हुए लगता है,
भरे दिन में ही अँधेरा हुआ,
संतोष है लेकिन,
कि आज तक जो था तुम्हारा,
आज के बाद सर्वस्व मेरा हुआ.
बहुत सार्थक बेहतरीन प्रस्तुति,,,,
ReplyDeleteRECENT POST...: दोहे,,,,
sunder rachna
ReplyDeleteखोने का आनन्द भी सीखें,
ReplyDeleteपा लेने का जीवन भ्रम है।
very true sir!!
Deleteअद्भुत भाव....बहुत सुंदर
ReplyDeletebahut dino baad ek alag bhaav wali kavita...looking forward to more like them!!
ReplyDeleteआपके लेखन का एक और भाव देखने को मिला. बहुत सुन्दर.
ReplyDelete